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20 सित॰ 2017

श्लोक क्र.[ २ ] भ्रमण किए दुर्गम प्रदेश मैंने देश विदेश -भर्तृहरि वैराग्य शतक श्लोक क्र [२]..काव्यानुवाद .डॉ.ओ.पी.व्यास

भर्तृहरि वैराग्य शतक  श्लोक क्र.[ २ ] 
काव्यानुवाद ..डॉ.ओ.पी व्यास 

भ्रमण किए दुर्गम प्रदेश, मैंने देश विदेश |

पर परिणाम में मिला नहीं, फल, कोई मुझे विशेष ||
जाति ,कुल ,अभिमान त्याग कर ,पर सेवा भी कीनी |
उस सेवा ने भी निष्फलता, मुझे अन्त में दीनी ||
भोजन किए पराए घर के, मान अपमान भी त्यागा |
जैंसे शंकित भोजन करता,किसी के घर में कागा ||
तेरे कारण ही हें तृष्णए | मुझे पड़े सब करने |
तू ही पाप कर्म प्रवर्तनी, वर्द्धमान, हें तृष्णए ||
हें तृष्णए ,अब और रखेगी ,कब तक तू मदहोश |
इतनी मेरी की बर्बादी, फिर भी ना संतोष ||

मूल श्लोक ..
भ्रान्तम देश मनेक-दुर्ग-विषमम-प्राप्तम न किन्चित फलम,
त्यक्त्वा जाति -कुलाभिमानमुचितम सेवा कृता निष्फला|
भुक्तं मान-विवर्जितम पर-गृहेष्वाशंकया काकवत, 
तृष्णए जरम्भसि पापकर्म -पिशुने नाध्यापि सन्तुषयसि[ २] 
अर्थ ...
अनेक दुर्गम विषम स्थानों में भटकने पर भी मुझे [ धन आदि के रूप में ] किसी भी फल की प्राप्ति नहीं हुई |अपने जाति -कुल के अभिमान को त्याग कर की हुई [ धनवानों की ] की मेरी सेवा व्यर्थ गई |कौए के समान डरते तथा अपमान सहते हुए मैं दूसरों के घर खाता रहा |रे पापकर्मों में लुब्ध रहने वाली तृष्णए | इतने पर भी तुझे संतोष नहीं हुआ , जो तू दिन पर दिन बढ़ती चली जा रही है|

भृतहरि नीति शतक का काव्यानुवाद