श्लोक क्र.[9]भर्तृहरि वैराग्य शतक 9/9.1996
[1] प्रथम भावानुवाद...
मूल श्लोक क्र.[9] निवृत्ता भोगेच्छा ...
[1] प्रथम भावानुवाद...
अब कहां है शेष इच्छा,और कहां हैं भोग?
पुरुषत्व के अभिमान का है,अब कहाँ उपयोग?
प्रिय मित्र पहुंचे स्वर्ग,उनके स्मरण में नेत्र गीले|
धीरे धीरे चल रहे,लकड़ी स्वयं ले||
क्षीण हो गयी दृष्टी,झुर्रिपूर्ण तन है पीत|
आश्चर्य आई मृत्यु,सुन,हैं इस कदर भय भीत||
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[2]द्वीतीय भावानुवाद.10/9/1996
इच्छा नहीं है भोग की,आया बुढ़ापा|
घट गया सम्मान,यह,लाया बुढापा||
चल बसे सम वय हमारे,जो बचे हम से बेचारे,
घोर तम सा,आँख में, छाया बुढ़ापा||
उठ ना पायें हम,बिना लकड़ी सहारे,
कटते,हमसे अब किनारे,वे कभी जो थे हमारे,
हाय दिन, हमको ,यह दिखलाया,बुढ़ापा||
गिर पड़े हैं गश को खाकर,मरों से भी हुए बदतर,
ज़ुल्म हम पर,इस कदर ढाया बुढ़ापा||
फिर भी कोई गर कर रहा,है बात मरने की,
चोंक पड़ते,शक्ल करते,हम हैं डरने की,
किस कदर है, बेह्या,काया बुढ़ापा|
इच्छा नहीं है भोग की आया बुढ़ापा||
घट गया सम्मान,यह लाया बुढ़ापा||
[9][299]..श्लोक क्र [9] निवृत्ता भोगेच्छा...[1]प्रथम भावानुवाद..अब कहाँ है शेष इच्छा?.[२]द्वितीय भावानुवाद.इच्छा नहीं है भोग की, आया बुढापा- ..डॉ. ओ. पी. व्यास
.............................................मूल श्लोक क्र.[9] निवृत्ता भोगेच्छा ...