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21 जन॰ 2017

भर्तृहरि नीति शतक काव्यानुवाद (सम्पूर्ण)

भर्तृहरि नीति शतक काव्यानुवाद
डॉ.ओ.पी.व्यास (गुना मप्र),
प्राक्कलन
     उज्जैन के आदिकालीन शासक राजा भरथरी (भर्तृहरि) जिन्हें बाद में वैराग्य हो गया था, ने संस्कृत साहित्य के माध्यम से शतक-त्रय लिखकर समाज को अनमोल ज्ञान, शिक्षाएं दी हें, प्रचलित मान्यताओं के अनुसार राजा भर्तृहरि महाराजा विक्रमादित्य के बाद अनुमानित: इसा के 550 वर्ष पूर्व उज्जैन के शासक रहे थे| बाद में उन्होंने गुरु गोरखनाथ से दीक्षा लेकर सन्यास ग्रहण कर लिया था| उनके द्वारा लिखित संस्कृत साहित्य समाज को उनकी अनमोल शिक्षा है| 
देखें विडियो इसमें इस काव्य का परिचय मिलेगा| 
    भरथरी जी ने 100 -100 श्लोकों के तीन ग्रन्थ जिन्हें शतक कहा गया, नीतिशतक, शृंगारशतक, और वैराग्यशतक, देकर अमूल्य योगदान किया है| एक प्रशासक होने से उनके साहित्य में सामाजिक, राजनेतिक विचार सुझबुझ और शिक्षा प्राप्त की जा सकती है|
      संस्कृत में लिखे इस साहित्य को समझ पाना वर्तमान सामान्य जा को बड़ा कठिन है, अर्थ सहित टीकाएँ तो उपलब्ध है, परन्तु उनसे मन और आत्मा झंकृत नहीं हो पाती|
      गुना निवासी पेशे से चिकित्सक डॉ. ओ. पी व्यास,जो पिछले 50 वर्षों से एक कवि के रूप में जाने जाते हें, जिन्होंने दूरदर्शन, रेडिओ, और अनेक कवि गोष्टी और सम्मेलनों में कविता प्रस्तुत कर सराहे जाते रहे हैं, आपने  भरथरी शतक त्रय (नीती, वैराग्य, और श्रृगार) का जन सामान्य को समझ आने वाली हिंदी भाषा में कविता छन्द के रूप में प्रस्तुत किया है| इस सन्दर्भ में उल्लेख के लिए में दो श्लोक एवं उनके काव्यानुवाद को प्रस्तुत करना चाहूँगा, देखें-     
श्लोक मूल रूप से निम्न है, उनका शाब्दिक अर्थ एवं आगे डॉ ओ. पी व्यास जी द्वारा लिखित काव्यानुवाद लिखा है,  देखे और लाभ लें-
 1- भर्तृहरि विरचित नीतिशतकम्, श्लोक 3
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः|
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति ॥ भर्तृ.नी.-3
अज्ञः सुखम् आराध्यः, सुखतरम् आराध्यते विशेषज्ञः,
ज्ञान-लव-दुः-विदग्धं ब्रह्मा अपि तं नरं न रञ्जयति |
अर्थः – अज्ञानी (जिसे ज्ञात न हो) को समझाना सामान्यतः सरल होता है| और भी अधिक आसान होता है| किसी ज्ञानी (विशेषज्ञ) को समझाना| पर अल्पज्ञ (आधा अधुरा ज्ञान वाले)  उसे समझा पाना स्वयं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के भी वश में नहीं होता| अल्पज्ञानी को स्वयं के बारे में अक्सर भ्रम रहता है|  यदि किसी ज्ञानी को किसी बात का ज्ञान नहीं तो वह कह देता है की ‘मुझे ज्ञात नहीं”| परन्तु अल्पज्ञ अपनी जिद पर अड़ा रहता है| उसके साथ तर्क से कोई निष्कर्ष नहीं निकला जा सकता|  
इसी बात को डॉ. ओ. पी. व्यास जी (गुना वाले) ने अपने  भर्तृहरि नीति शतक के काव्यानुवाद में आसानी से समझा दिया है|
देखें –
होता है, प्रसन्न वह प्राणी, जिसको  होता है अज्ञान
उससे भी प्रसन्न  वह  प्राणी, जिसको होता है, कुछ ज्ञान|| 
पर ब्रह्मा भी समझा ना सकें, एक बात यह रखिए ध्यान
जो ना ज्ञानी ना अज्ञानी, समझे वह कैसे नादान||(भर्तृ.नी.-3)
2- अगले चतुर्थ श्लोक में ही भर्तृहरि मुर्ख को समझाने के प्रयत्न की तुलना कठिन कार्यों से करते हें देखें-
प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरदंष्ट्रान्तरात्, समुद्रमपि सन्तरेत् प्रचलदुर्मिमालाकुलाम् |
भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारयेत्, न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥
(भर्तृ.नी.-4)

संधि विग्रह कर देखें- प्रसह्य मणिम् उद्धरेत् मकर-दंष्ट्र-अन्तरात्, समुद्रम् अपि सन्तरेत् प्रचलत्-उर्मि-माला-आकुलाम्, भुजङ्गम् अपि कोपितं शिरसि पुष्पवत् धारयेत्, न तु प्रति-निविष्ट-मूर्ख-जन-चित्तम् आराधयेत् |
अर्थः मनुष्य कठिन प्रयास करते हुए मगरमच्छ की दंतपंक्ति के बीच से मणि बाहर ला सकता है, वह उठती-गिरती लहरों से व्याप्त समुद्र को तैरकर पार कर सकता है, क्रुद्ध सर्प को फूलों की भांति सिर पर धारण कर सकता है, किंतु दुराग्रह से ग्रस्त मूर्ख व्यक्ति को अपनी बातों से संतुष्ट नहीं कर सकता है|
इसी बात को डॉ. ओ.पी व्यास जी ने निम्न रूप में लिखा है|
मणि जो दबी मगर के मुख में, सम्भव निकले किए प्रयास
गहन सिंधु की ऊंची  लहर, तैर पार हो जाएं  काश|| 
शिर के ऊपर सम्भव रख लें, क्रुद्ध  भले ही विषधर  नाग
किसी वस्तु पर टिका हुआ मन, मगर मूर्ख  कर सके ना त्याग||(4)
आगे देखे भरथरी जी यह श्लोक :-
क्षान्तिश्चेत्कवचेन किं, किमिरिभिः क्रोधोऽस्ति चेद्देहिनां
ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृद्दिव्यौषधिः किं फलम् ।
किं सर्पैर्यदि दुर्जनः, किमु धनैर्वुद्यानवद्या यदि
व्रीडा चेत्किमु भूषणैः सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम् ॥
यदि व्यक्ति धैर्यवान या सहनशील है तो उसे अन्य किसी कवच की क्या आवश्यकता; यदि व्यक्ति को क्रोध है तो उसे किसी अन्य शत्रु से डरने की क्या आवश्यकता; यदि  वह रिश्तेदारों से घिरा हैं तो उसे अन्य किसी अग्नि की क्या आवश्यकता; यदि उसके सच्चे मित्र हैं तो उसे किसी भी बीमारी के लिए औषधियों की क्या जरुरत? यदि उसके आप-पास बुरे लोग निवास करते हैं तो उसे सांपों से डरने की क्या आवश्यकता? यदि वह विद्वान है तो उसे धन-दौलत की क्या आवश्यकता? यदि उसमे जरा भी लज्जा है तो उसे अन्य किसी आभूषणों की क्या आवश्यकता तथा अगर उसके पास कुछ अच्छी कवितायेँ या साहित्य हैं तो उसे किसी राजसी ठाठ-बाठ या राजनीति  की क्या आवश्यकता हो सकती है।
इसका डॉ व्यास जी ने अपने शब्दों में कितन स्पष्ट और ग्राह्य बना दिया है|
देखें:-
यदि क्षमा है तो कवच का क्या करोगे|
क्रोध है यदि शत्रु से फिर क्यों  मरोगे ||
जाति है यदिअग्नि की क्या है ज़रूरत|
मित्र सुह्रद पास हैं यदि, क्या दवा और क्या मुहूरत||
यदि तुम्हारे पास दुर्जन, वही काला सर्प है|
यदि तुम्हारे पास विद्या, धन का  संचय, व्यर्थ है||
मूल्य क्या आभूषणों  काबड़ा भूषण एक लज्जा|
तुच्छ हैं सब  राज्य जग के, बड़ी सब से एक कविता|| (21)
इसके आगे राजा भर्तृहरि यह कहने में भी नहीं चूकते हैं, कि असंभव माना जाने वाला कार्य कदाचित् संभव हो जाए, लेकिन मूर्ख को संतुष्ट कर पाना फिर भी संभव नहीं है|
लभेत् सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्
पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः|
कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक 5)
अर्थः- कठिन प्रयास करने से संभव है कि कोई बालू से भी तेल निकाल सके, पूर्णतः जलहीन मरुस्थलीय क्षेत्र में दृश्यमान मृगमरीचिका में भी उसके लिए जल पाकर प्यास बुझाना मुमकिन हो जावे, और घूमते-खोजने अंततः उसे खरगोश के सिर पर सींग भी मिल जाव, परंतु दुराग्रह-ग्रस्त मूर्ख को संतुष्ट कर पाना उसके लिए संभव नहीं|
उक्त छंद में अतिरंजना का अंलकार प्रयुक्त है| यह सभी जानते हैं कि बालू से तेल लिकालना, जल का भ्रम पैदा करने वाली मृगतृष्णा में वास्तविक जल पाकर प्यास बुझाना, और खरगोश के सिर पर सींग खोज लेना जैसी बातें वस्तुतः असंभव हैं | कवि का मत है कि मूर्ख को सहमत कर पाना इन सभी असंभव कार्यों से भी अधिक कठिन है|
एक प्रश्न है जिसका उत्तर देना मुझे कठिन लगता हैमूर्ख किसे कहा जाए इसका निर्धारण कौन करे, किसे निर्णय लेने का अधिकार मिले ? स्वयं को मूर्ख कौन कहेगा मेरे मत में वह व्यक्ति जो अपने विचारों एवं कर्मों को संभव विकल्पों के सापेक्ष तौलने को तैयार नहीं होता, खुले दिमाग से अन्य संभावनाओं पर ध्यान नहीं देता, आवश्यकतानुसार अपने विचार नहीं बदलता, अपने आचरण का मूल्यांकन करते हुए उसे नहीं सुधारता और सर्वज्ञ होने या दूसरों से अधिक जानकार होने के भ्रम में जीता है वही मूर्ख है|
पेशे से चिकित्सक कवि डॉ ओ.पी. व्यास गुना मध्यप्रदेश निवासी ने संस्कृत के इस महान साहित्य ज्ञान सम्पूर्ण “भर्तृहरि नीति शतक” को आसानी से समझ आने वाली हिंदी में काव्यनुवाद प्रस्तुत कर को वर्तमान समाज को इस साहित्य से रूबरू होने का महत कार्य किया है, इस हेतु वे सम्मान और बधाई के पात्र हें| 
शीघ्र पुस्तिका के रूप में प्रकाशन की और अग्रसर डॉ.ओ.पी.व्यास रचित “भर्तृहरि नीति शतक काव्यानुवाद” प्रस्तुत कर प्रसन्नता हो रही है| आशा हें आप सबको भी संस्कृत के इस नायब अनमोल ग्रन्थ का लाभ मिलेगा|
 धन्यवाद|
डॉ. मधु सूदन व्यास उज्जैन मप्र
 ०७३४-२५१९७०७ /९४२५३७९१०२   
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मंगलाचरण
शान्त, तेज रूप परमात्मा, नमस्कार है, शत, शत बार|
सभी दिशा, और सभी काल में, चेतन, व्याप्त, अनन्त प्रकार|| (1)
हम जिसके प्रेम में पागल थे, उसे  किसी और की चाह रही|
उसने भी चाहा ना उसे, उसकी किसी और में राह रही||
जिसको उसने चाहा हरदम, उसको भी किसी की दाह रही|
यह और और कितना अनन्त, जिसकी ना कहीं  कोई थाह रही||
देखी ऐंसी चाहत विचित्र, खुल गये  नेत्र एक झटके से|
हम घोर नींद में खोये थे, अब  जाग गये एक खटके से||
धिक्कार उसेउसके प्रिय को, धिक्कार नगर की उस तिय को|
धिक्कार मुझेऔर मदन तुम्हें, दिया शिव ने तो ना सदन तुम्हें||
बिगड़े घर द्वार किसी का भी, पर तुमको क्या  परवाह रही|
हम जिसके प्रेम में पागल थे, उसकी किसी और में राह रही|| (2)
होता है,प्रसन्न वह  प्राणी, जिसको  होता है अज्ञान
उससे भी प्रसन्न  वह  प्राणी, जिसको होता है कुछ ज्ञान|| 
पर ब्रह्मा  भी समझा  ना सकें, एक  बात  यह रखिए  ध्यान
जो ना ज्ञानी ना अज्ञानी, समझे वह कैसे नादान||(3)
मणि जो दबी मगर के मुख में, सम्भव निकले किए प्रयास
गहन सिंधु की ऊंची  लहर, तैर पार हो जाएं  काश|| 
शिर के ऊपर सम्भव रख लें, क्रुद्ध  भले ही विषधर  नाग
किसी वस्तु पर टिका हुआ मन, मगर मूर्ख  कर सके ना त्याग||(4)
बालू में से तैल यत्न से, सम्भव निकले किए प्रयास
मृगतृष्णा के जल से शायद, बुझ जाए प्यासे की प्यास|
शायद कहीं खोज मिल जाए, शशक श्रंगâ का कोई भाग|
किसी वस्तु पर टिका हुआ मन, मगर मूर्ख कर सके ना त्याग||(5)
कोई हीरा बिंध सकता क्या, सरसों के पुष्पों से
खारा सागर मीठा होगा क्या, मधु की बूंदों से|| 
काश कोई उन्मत्त बंधे गज, कोमल कमल नाल रेशों से
पर दुष्टों को सन्मार्ग असम्भव, अमृत मय उपदेशों से|| (6)
मोन  विधना ने जिसको रचा, श्रेष्ठ गुणों  में मोन
वस्तु यह स्वाधीन है, इसका याचक कोन ?||
ढक्कन है यह बुद्धि पर, ढके मूर्खता सारी
विद्वानों की सभा में, आभूषण अति भारी|| (7)
मैं मद मैं मदमस्त  था, ज्यों मदोन्मत्त गजराज
मानो मैं सर्वज्ञ हूँ, पूर्ण  हूँ ज्ञानी  आज|| 
पर ज्ञान हुआ यथार्थ जब, कर विद्वानों का  साथ
गर्व का ज्वर उतरा त्वरित, मैं था मूरख  नाथ||(8)
कीड़ों युक्त, क्लिन्न लार से, दुर्गन्धित, गन्दी, रस हीन
कुत्ता मानव  अस्थि चाबता, समझ रहा इन्द्र को दीन||
प्रकट  यही  होता  है  इससे, नीच जीव जिसे करे ग्रहण
ध्यान  नहीं हैनिम्न  वस्तु पर, कितने इस में हैं अवगुण|| (9)
गंगा  पतित  स्वर्ग  से होकर, आईं शंकर जी के माथ
फिर  हिम गिरि पर, फिर गिरीं भू पर, फिर हुईं  सागर  पात|| 
इस से एक  बात  होती है, पूरी  तरह  से सिद्ध
भ्रष्ट  विवेकी होता जाए, अगर ना छोड़े  ज़िद|| (10)
जल से अग्नि, धूप छातें से, अंकुश से गज राज
 गदहा, बैल दण्ड से, औषधि करे रोग पर काज|| 
विष का विविध मन्त्रतन्त्रों  से, होता सदा निवारण|
नहीं, मूर्खता की औषधि, मिटे रोग, ना कारण|| (11)
साहित्य, कला, संगीत से नर जो भी हैं हीन
  पूँछ, सींग जिनके नहीं, पशु, साक्षात वो दीन|| 
पशुओं का सौभाग्य यह, नर नहीं खांय हैं घास
 वरना पशु क्या, जीमते, तुम्हीं बताओ,'व्यास'|| (12)
विद्या, तप, गुण, शील, नहीं, नहीं ज्ञान, अज्ञान
 मृत्यु लोक में भूमि पर, भार हैं, मृग  पशु   के समान||  (13)
निर्जन पर्वत पर करो,वन्य जनों संग वास
 इन्द्र भवन में मूर्ख के, जाओ किन्तु ना पास|| (14)
शास्त्र युक्त उपदेश में, होते हैं, जो प्रवीण
ऐसे कवि निर्धन रहें, राज्य हैं वे अति दीन||
पूज्य नीय  सर्वत्र हैं, कवि निर्धन विद्वान|
निंदा पात्र वह ज़ोहरी, जो  रत्न मूल्य अनजान||(15)
विद्या  रुपी  गुप्त धन, देख  सके ना  चोर
श्रेय वृद्धि  को जो करेसदा और सब ओर|| 
विद्या धन बढ़ ज़ात है, दें भिक्षुक को दान
नष्ट प्रलय भी ना करे, होती  कभी ना हानि|| 
महा कविओं के सामने, करे ना शासक  गर्व
महा कवि पूजित हुए, सदा, सर्वदासर्व|| (16)
तृण  समान लक्ष्मी जिन्हें, कभी ना उसके  दास
मद स्रावित गज राज के, जाय ना अंकुश पास|| (17)
रोके भले विधि हंस को, करता हो जो विलास
पर नीर क्षीर गुण ना रुके, जो गुण, उसके पास|| (18)
उबटन और स्नान ना  सोहे, ना ही केश  श्रंगार
बाज़ूबन्द ना शोभतेना मुक्ता  के हार|| 
पुष्पों से शोभा नहीं, यदि वाणी, नहीं प्यार
अलंकार सब व्यर्थ हैं, नहीं हैं  यदि  संस्कार||(19)
विद्या से ही होत है, नर का  सुन्दर  रूप
विद्या ही है गुप्त धन, भरा  हुआ  एक कूप|| 
राजा विद्या पूजता, धन की करे ना  कोई पूजा
विद्या हीन मनुष्य पशु हैकारण और ना दूजा|| (20)
यदि क्षमा है तो कवच का क्या करोगे
 क्रोध है यदि शत्रु से फिर क्यों  मरोगे || 
जाति है यदिअग्नि की क्या है ज़रूरत|
  मित्र सुह्रद  पास हैं यदि, क्या दवा और क्या मुहूरत || 
यदि तुम्हारे पास दुर्जन, वही काला सर्प है
  यदि तुम्हारे पास विद्या, धन का  संचय, व्यर्थ है|| 
मूल्य क्या आभूषणों  काबड़ा भूषण एक लज्जा|
तुच्छ हैं सब  राज्य जग के, बड़ी सब से एक कविता|| (21)
जान लीजिए  आप कुछअब लोकिक  व्यवहार
 नर वह कुशल जो जानताइनको  ब्योरेवार|| 
स्वजनों पर होवें उदासदया करें परिजन पर
 प्रेम साधु पुरुष पर कीजेशठता करें दुर्जन  पर|| 
बात नीति की राज पुरुषों सेविद्वानों से सरलता
 वीरोचित हो बात शत्रु सेगुरुजनों  सेसहनशीलता|| 
नारी जनों से करें घ्रष्टतानहीं है अनुचित  कार्य
 यह लोकिक व्यवहार करे जोवही कुशल है आर्य||  (22)
सत संगति में बहुत गुणहर नर को हितकारी|
मन होता प्रसन्नकीर्ति से भरेंदिशाएँ सारी|| 
जड़ता दूर करे सत्संगतिभरे  सत्य से वाणी
पाप समूह नष्ट हो जातेनर हो जाता मानी||(23)
कवि प्रशंसा
यश रुपी शरीर है जिनका, कभी ना हों, जो वृद्ध|
कभी मृत्यु का, जिन्हें भय नहीं, कविता को, प्रतिबद्ध||
अच्छे कर्म करें और जो हों सभी रसों में सिद्ध|
जय हो!जय हो! ऐंसे कवि की, जो जग में हैं प्रसिद्ध|| (24)
सूत  सच्चरित्र, पतिव्रता स्त्री, रहता हो, प्रसन्न मुख, स्वामी|
स्नेही मित्रअवंचक  परिजन, होत जगत में जो जन  नामी|| 
आक्रति रुचिर मनोहर जिसकी, क्लेश रहित मन जिसका|
 स्थिर वैभव वाला होवे, विद्या ही धन  जिसका|| 
परमात्मा प्रसन्न हो जिस पर, वही तो सब यह पाता|
उसका ही तो जन्म सफल हैजो प्रभु के गुण गाता|| (25)
जीवों की हिंसा ना करना, परधन को ना हरना
सत्य और सदाचार से रहना, यथा शक्ति दान करना|| 
पर स्त्री की कथा ना सुनना, सदा  मोन में  रहना
सदा तोड़ना तृष्णा अपनी, विनय  गुरु में रखना|| 
सब जीवों पर दया भाव हो, सदा बचाना  प्राण
सभी शास्त्र का  मूल  मार्ग यह, इसी में है कल्याण| (26)
उत्तममध्यमनिम्न हैं, तीन पुरुष के नाम
निम्न पुरुष डर विघ्न सेशुरू करें ना काम|| 
मध्यम पुरुष विघ्न पड़ने परकाम बीच में छोड़ें
उत्तम पुरुष कोई बाधा हो, कभी ना मुख को मोड़ें|| 
उत्तम पुरुष बार कितने हीहो कर  के सन्तप्त
बिना कार्य की पूर्ती हुए वे, कभी ना होते तृप्त|| (27)
उत्तम पुरुष  न्याय  प्रिय  होतेपुरुषों  में अति  श्रेष्ठ
घोर विपत्ति में भी करते, कार्य ना कोई  नेष्ठ|| 
याचन करते  नहीं कभी वे, दुष्ट  पुरुष  से
जाते  कभी  ना द्वार, अल्प  धनवान  सुह्र्द  के|| 
जाय ना गौरव मान, भले ही, निकलें उनके प्राण
किसने  उन्हें सिखाया, व्रत ये, चलना  धार कृपाण|| (28)
मान शोर्य प्रशंसा 1
व्याकुल  सिंहक्षुधा  पीड़ित, दुर्बल, शिथिल, वृद्ध, बलहीन
फिर भी चाहे  गज मस्तक हीशुष्क घास भोजन नहीं  कीन||2
सिंह हूँ मैं, वृद्ध  हूँ  मैं, पर हूँ  बहुत  बलहीन
अति कष्ट में हूँ, क्षुधा पीड़ित हूँ, हूँ  बहुत ही दीन|| 
अब  प्राण जाएँ, अब, कल, मरूं या आज
पर घास तो खांऊँ नहीं, मुझको  मिलें गजराज|| 
 (नोट ..यह काव्यानुवाद द्वितीय प्रकार से किया है|) (29)
श्वान चबाता  सूखी हड्डी, जिसमें नहीं वसा और मांस
पर अति प्रसन्न हैअति संतोषीहोवे भले  क्षुधा  ना शांत|| 
और दूसरी ओर शेर हैचाहे भले  हो  पास श्रगाल [सियार]|| 
फिर भी  गज  मस्तक ही  चाहे, भले  भूख से हो बेहाल||(30)
देते भोजन अगर  श्वान को, तो  वह  पूँछ  हिलाता
लोट पोट होता क़दमों में, अधिक  दीन  हो जाता||
 पर  हाथी  चाहे  मरे भूख से, सदा  रहे गम्भीर
मान  मनौअल से  ही खाता, त्यागे  कभी  ना धीर||(31)
यह जग परिवर्तन वाला है,कौन  ना जन्मे मरता
 जन्म उसी का होता सार्थक, वंशोन्नति जो  करता||(32)
पुरुष यशस्वीपुष्प गुच्छ सम, दो ही गतियाँ  पांय
या  तो  शिर पर होंयप्रतिष्ठित, या वन में मुरझांय|| (33)
तेजस्वी गृह व्योम  में, ब्रहस्पति  सम और
पर दानव पति जो राहु हैं, करें  ना उन पर गौर|| 
राहु पराक्रम  रूचि रखें, करें  ना उनसे  बैर
चन्दासूरज की मगरहोती  नहीं है खैर|| 
क्योंकि परम तेजस्वी हैंसूर्य, शशि  ग्रह  दोय
ग्रास अमावस पूर्णिमाइन दोंनो का होय||  (34)
शेष नाग चौदह भुवन, फन  पर लीन्हें  धार
 शेष नाग जिन पीठ परवे कच्छप  के अवतार|| 
और कच्छप को गोद में, धारे सहज  ही सागर
महा चरित्र महा पुरुषों के, समझ सकें ना नागर|| (35)
वज्र  चलाया इन्द्र ने, तो भीषण निकली ज्वाल
कटे पंख मैनाक के, बुरा हो गया हाल|| 
पर यह तो अच्छा ना किया, जब पिता पे संकट आया
इन्द्र छुप गये सागर भीतर, ख़ुद की  बचाने  काया|| (36)
जब  सूर्य कान्त मणि अचेतन, पाके  सूर्य का  ताप
हो जाती है शीघ्र प्रज्वलित, वह तो  अपने आप|| 
तब तेजस्वी पुरुष  सचेतनसह  कर के अपमान
क्यों ना हो जायेंगे क्रोधितक्या वे ना रखें सम्मान||(37)
बच्चा है यह सिंह का, गज पर करे प्रहार
तेजस्वी की प्रक्रति  यह, कर लीजिए स्वीकार|| 
आयु ना बाधित हो सके, तेजंवान जो व्यक्ति
दिखला दे हर हाल में, अपनी शोर्य और शक्ति||(38)
द्रव्य प्रशंसा
चाहे जाति रसातल  जाए, होवे श्रेष्ठ  गुणों का पात|
शिला, समान, शीलता, गिरि, से, भंग होय, हो जाये, निपात||
चाहे  जाए  कुटुम्ब  भाड़ में,   वज्रपात हो शोर्य  मिटे|
केवल  धन से हमें प्रयोजन, अजी बिना द्रव्य जीवन ना कटे||(39)
वही नाम  हैवही इन्द्रियां, वह ही बुद्धि, वही वाणी|
पल  में कुछ का  कुछ हो जाता, ज्यों ही  हो निर्धन  प्राणी||(40)
वही है कुलवान व्यक्ति, आज  जो धनवान  है
 वही  गुण शालीऔर  पण्डित, वही तो विद्वान  है|| 
वही सुन्दर, वही वक्ता, उसका दर्शन कीजिए
  योग्यता पर ध्यान क्या दें, ध्यान धन पर दीजिए|| 
योग्यता सारी की  सारी, स्वर्ण के आधीन है
 यदि पास में है नहीं पैसा, सब गुणों से हीन है|| (41)
मंत्री होता बुरा जोराजा होता नष्ट
  बिगडे  योग, कु संग सेयोगी होता भ्रष्ट|| 
बिन  विद्या के ब्राह्मण बिगडे, लाड़ से बिगडे  पूत
खेती बिन रखवाली  बिगडे, कुल बिगडे जब  होय कपूत|| 
कहे भर्तृहरि सुनो भाईओ, मत दो इन में ढील
दुष्टों  के सहवास से, नष्ट  होत है शील|| (42)
धन की गतियाँ तीन हैं, दान , भोग  और नाश
दान करो या भोग लो, नहीं रहेगा पास|| (43)
 कृशता   कमजोरी
कमजोरी कृशता भी है, सोन्दर्य, बढाती|
मणि जब जाए तराशी, तब ही चमक दिखाती ||
विजयी वीर पुरुष, तब ही तो आदर पाते |
जब युद्धों में जाते हैं, निज रक्त बहाते||
मद वाला, गजराज, शरद ऋतु की यह सरिता |
कला युक्त शशि, रति क्रिया मर्दिता||
जिस राजा का पूण्य कार्य में, होता, व्यय धन|
जय , जय उसकी होती, भले वह होवे निर्धन ||
शोभित होते यह सब, दुर्बलता के कारण|
मुग्ध सभी उन पर. करते कृशता जो धारण||
इसीलिए कमज़ोरी को भी, कम मत जानो|
कृशता है वरदान तुल्य, इसे भी उर से मानो||(44)
कल  तकजौ, अन्न आदि की मात्र अंजलि, जो मांग रहे थे भीख
आज वही हो गये, धनिक, समझते, धरा घांस की सींक||
आदि  वस्तु  की निश्चय  ही, होती नहीं है कोई अवस्था
कब हो कौन  धनिक या  निर्धन, प्रभु की अद्भुत व्यवस्था|| (45)
हें राजनयदि चाहतेदुहना पृथ्वी  जैसे  गाय
प्रजा पालिए  वत्स  बछड़े  सम, यह ही  एक  उपाय|| 
सम्यक  पालन में पृथ्वी के, जो  भी  राजा  दक्ष
विविध भांति फल देती भूमि, ज्यों  देता कल्प  वृक्ष|| (46)
राजनीति  क्या  तुम  वारांगना  [वेश्या |
  कभी कोई श्रंगार, कभी  कोई  पहना  कंगना|| 
कभी बोलतीं सत्य, कभी तुम झूठ ही बोलो
  कभी  अत्यंत  कठोरधार  तलवार  सी डोलो|| 
कभी अत्यंत  मृदुलकोमल करुणामयी हो लो
 ज्यों झर रहे हों पुष्प वाणी  सेमुख जब खोलो|| 
कहीं घातक  अत्यंत,   कहीं हो बड़ी  कृपालू
 कहीं  कृपण  कंजूस कहीं तुम  बड़ी दयालू|| 
करती  हो धन,   कहीं कहीं तो बहुत प्रचुर व्यय
  और  कहींकरने  लग  जातीं धन तुम संचय|| 
यह राज नीति वेश्या जैंसी  धरती कितने रूप
 कहें  "भर्तृहरि "नीति  पर  चलना  सीखो  भूप|| (47)
विद्याकीर्तिविप्र का पालन, दान शीलता, भोग
मित्र संरक्षण आदि यह, छे गुण कहते लोग|| 
जिस राजा के राज्य में नहीं हैं  गुण ये छे
उस  राजा  के  आश्रय से, भला  लाभ  क्या है || (48)
किसी धनिक के सामने,  वृथा बनो मत दीन|
रहो धैर्य  संतोष से, समझ  दैव  आधीन|| 
लिखा भाग्य में विधाता, धन जो अधिक या अल्प
उतना तोमरु में भी मिलेगा, मेरु नहीं विकल्प|| 
कूप  सिंधु  में  कहीं  भी, डाल  दीजिए  घट
ना तो अधिक जल भरेगाना वह  जाएगा  घट|| (49)
कह  रहा  पपीहा  मेघों से, सुन  लीजे  करुण पुकार  प्रभु|
हम  दीन  दया  के  याचक  हैं, बस  आप  मेरे  आधार  प्रभु||
यह बात किसे  है ज्ञात नहीं, आप  हमारे  सार प्रभु|
दीन  वचन सुन लो  मालिक, करवाते  क्यों ? इन्तजार प्रभु||(50)
तुम  सुनो  पपीहेसावधान, सुनो बात  मेरी, करो  समाधान|| 
हैं  मेघगगन  मेंबहुतेरे, सब ना समान, तू क्यों, टेरे||
कुछ  व्यर्थ  करें, गर्जन, तर्जन, कुछ ही करते मनको हर्षण|| 
कुछ तो केवल सन्तप्त करें, कुछ  वर्षा करके तृप्त  करें|| 
इसलिए  बात  सुन  रे  चातक, हर  कहीं, मांगना है घातक|| 
जिसको भी देखे, दीन ना बन, मन वाणी से तू हीन ना बन|| (51)
सुनिएदुरात्मा का  स्वभाव, कुलक्षण का वहां ना अभाव||
निर्दयता  संग्रह  करते  हैं, बिन  कारण  के  ही जलते  हैं|| 
पर  धनपर  नारी  को  चाहें, हैं  गलत  सदा  इनकी  राहें|| 
कुढ़ते  रहते ये  मित्रों  से, ईर्षा  करते ये स्वजनों  से|| 
यह बुरी  आत्मा के  लक्षण, यह  व्यक्ति  छोड़  दीजे तत्क्षण||(52)
दुर्जन  विद्वान  भले  ही  हो, उसको  तुरंत  ही  तुम  त्यागो|
हो सर्प  भयंकरमणि  भूषित, क्या, उसको  तुम अपनाओगे|
त्यों ही  दुर्जन की  संगति  को, अपनाया यदि तो भोगोगे| (53)
दुर्जन स्वभाव के जो रहते, गुण हीन सज्जनों को कहते||
गुणिओं में दिखते दोष उन्हें, सज्जनता से मतलब ना जिन्हें||
हर जगह दोष ही दोष दिखें, वे गुणवानों में अवगुण परखें||
वृत वालों को बोलें दम्भी, लज्जा शीलों को जड़ बुद्धि|
पवित्र चित्त जिनके रहते, उन सबको यह कपटी कहते||
निर्दयी कहें ये वीरों को, कहें हीन बुद्धि का मुनिओं को||
होते जो तेजवान व्यक्ति, उन्हें कहें घमण्डी और खब्ती||
वक्ता को बोलें बकता है, पागल है बक बक करता है||
कर लिया चित्त जिनने स्थिर, ये कहते उन्हें आलसी नर||
मृदुभाषी और मधुर व्यक्ति, कर सकते उनकी नहीं तृप्ति||
दुर्जन उनसे इतना चिढ़ते, उन्हें दीन हीन निर्धन कहते||
इस तरह गुणी का हर एक गुण, दुर्जन को दिखता है दुर्गुण||
कहें भर्तृहरि सुनो ''व्यास '',  दुर्जन के जाओ नहीं पास|| (54)
पास में  यदि एक दुर्गुण लोभ, अन्य  दुर्गुण का करो मत क्षोभ|| 
साथ रखते यदि चुगलपन आप, क्या करोगे और करके पाप|| 
मन  में शुचिता  मत करो, तीरथ  में  जाकर  जाप
सत्य  है यदिमत तपो, फिर, और  तप  के  ताप|| 
 साथी यदि सौजन्यता के हो, और गुण का गणित है क्या |
अगर हो महिमा मण्डित आप, करना उसको फिर प्रमाणित क्या || 
साथ  में  यदि  कोई  सद्विद्या, क्यों, करो होधन की तुम चिंता|| 
पहुंच गये हो  यदि  अपयशों के पास, मृत्यु तो आ ही गई अब बचा क्या ख़ास||(55)
कण्टक सात शल्य  तीर   सेमेरे मन को चुभते हैं
रात दिवस वह मुझको, आकुल, व्याकुल करते हैं|| 
दिन का धूमिल चन्द्र, गलित यौवन नारी का
कमल विहीन सरोवरमूर्ख पुरुष प्यारी का|| 
लोभी होवे स्वामीबड़ी है ख़ामीसेवक भूखे मरते हैं
कण्टक सात शल्य से, मेरे मन को चुभते हैं
रात दिवस वे मुझको, आकुलव्याकुल करते हैं|| 

सबसे बड़ा है काँटा, सज्जन की होती है दुर्गति
उससे बड़ा है राज भवन में, घुस गया कोई दुर्मति|| 
यह सातों ही कांटेनिशि दिन, मन को मथते हैं
कण्टक सात शल्य से, मेरे मन को चुभते हैं
रात दिवस वे मुझको, आकुल व्याकुल करते हैं|| (56)
राजा  होता  जो अति  क्रोधी, कोई ना देता साथ
आहुति  वृथा अग्नि  में देकर, कौन  जलाए हाथ|| (57)
बहुत  कठिन  होता है जग में, यह सेवा का धर्म
योगी जन  को भी अगम्य है, जान  सकें  ना मर्म|| 
बिना बात सेवक को  डाटें, मालिक हर दम नाहक
जैंसे  किसी स्वामी का होता, मौन शान्ति प्रिय सेवक|| 
मालिक उसे बोलता गूंगा, बेवकूफ़ और अहमक|
वाक पटु यदि कोई सेवक, कहते, करता बक  बक|| 
ढीठ कहें ,जो प्रति क्षण, सेवा को रहता हो पास
रहे  दूर  ही दूर अगर तो, कहें उसे बद माश|| 
यदि है  सेवक  क्षमा  शील, तो कहें उसे डरपोक
यदि, ना सहन शील, तो बोले, कुल विहीन, कुल शोक|| 
इसीलिए है, कठिन जगत में, सेवक बन कर रहना
सेवा करने में तक़लीफें, पडतीं बहुत हैं सहना|| (58)
सुख  की  खोज  में  जा रहे, आप हो किसके  पास|
सभी  व्यक्ति यह जानते, वह  है दुष्टों में ख़ास||
पूर्व जन्म कृत  नीच  कर्म काहो गया पूर्ण विकास|
दैव वशात  वह  आज धनिक है, छटा हुआ बदमाश|| (59)
दुष्ट मित्रता प्रातः की छाया, जो घटती ही जाय|
सुजन मित्रता संध्या छाया, जो बढ़ती ही जाय|| (60)
मृग खाते हैं घास, करें हैं वे जंगल में वास,शिकारी फिर भी मारें हैं|
मछली पीती हैं पानी,करे है नहीं किसी की हानि,मारते पर मछुआरे हैं||
होते हैं शत्रु अकारण, करते जो दुर्जनता धारण,मरें सज्जन बेचारे हैं|
रखें सज्जन से निशि दिन द्वेष,देते रहते हरदम क्लेश,ये जग के दुर्जन सारे हैं|| (61)
उन सज्जन को प्रणाम है मेरा,
जिन में रहते श्रेष्ठ सभी गुण, जो श्रेष्ठ गुणों की खान हैं||
इच्छा करे संग सुजन से, प्रीति करे पराये गुण से||
नम्र रहे जो सब गुरुजन से, विद्या में अनुराग हो|
निज पत्नी से प्रेम करे जो, लोक निंदा भय भाग हो||
शिव में भक्ति, स्व दमन की शक्ति, दुष्ट संग परित्याग हो|
जल में रहे कमल के जैसा, कहीं ना जिसकी लाग हो||
उन सज्जन को प्रणाम है मेरा, उन सज्जन को प्रणाम है|
जिन में रहते श्रेष्ठ सभी गुण, जो श्रेष्ठ गुणों की खान हैं||
उन सज्जन को प्रणाम है मेरा, उन सज्जन को प्रणाम है||(62)
सदा  विपत्ति  में  धैर्यवान  हो, अभ्युदय  में क्षमा  वान  हों||
वाक्पटु  हों  सभा सदों में, पराक्रमी  हों जो युद्धों में|| 
यश में जिन की होतीअभिरुचि, शास्त्र श्रवण  आसक्ति, और शुचि|| 
यह  सब गुण  स्वाभाविक जिनको, कोटि प्रणाम महात्मा उनको||(63)
गुप्त  रखें  जो  सदा  दान  को,  स्वागत  रत  रहते  मेहमान  को|| 
परोपकार करके  चुप  रहते, अन्य  उपकार सभा में कहते|| 
धन  को  पाकर  गर्व  ना  करते, परनिंदा चर्चा  से डरते|| 
चाहे  जीवन रहे ना रहे, निकल जाएँ चाहे प्राण
किसने  वृत  यह  कठिन बताया, चलना धार कृपाण|| (64)
स्तुति  है  हाथों  की  दान  में,  शिर  की शोभागुरु प्रणाम  में|| 
मुख  की  शोभासत्य  वचन में,  कर  की  शोभा, होती  रण  में|| 
उर की शोभा है  पवित्रता, कान की  शोभा श्रवण  शास्त्र का||
यह ऐश्वर्य  के  अलंकार हैं, सज्जन पुरुषों को स्वीकार है|| (65)
कमल  सा  कोमल, महात्मा  का  है मन,
मिले  चाहे  सम्पत्तिऔर  है कठोर वह ,
महा  शिला  सा, यदि  आ  जाए  विपत्ति||(66)
तपते  हुए  लौह पर, जल का, मिलता  नहीं, निशान है
  कमल पत्र  पड़ा, वही  जल, मोती, के ही, समान है|| 
जल  है  वही, मगर, स्वाति में, मुक्ता बने  महान है
उत्तममध्यमअधम, गुणों  की, यह, संसर्ग, खदान है||(67)
रखे  आचरण  सदा  श्रेष्ठ  जो, होवे  पिता प्रसन्न
कुल  सपूतकुल  श्रेष्ठ पुत्र  वहजन्म  है, उसका धन्य||
वह  ही  पत्नी  धन्य, सदा  जो, करती पति का चिन्तन|
सच्चा  मित्र  जो  साथ  सुख दुःख मेंउसका जग में  वन्दन|| 
ऐंसे  मित्र, पुत्र और  पत्नी, मिलें  होय सद्भाग्य
वह पूण्य वान पुण्यात्मा है जोपाए  ऐंसा  भाग्य||(68)
केशव  हों या शिव जी  होवें, होवे  एक देव में ही मेरी मति|
एक ही होवे मित्र जगत मेंहोवे यति   साधु   या  होवे  भू पति|| 
हो निवास  की जगह  एक  ही, वन हो  या  कि नगर हो
नारी  भी  हो एक  ही  केवलहो कुरूप या फिर  सुन्दर  हो||(69)
नम्र  रहिएइस  तरह  हीस्व  उन्नयन कीजिए
दूसरों  के  गुण  को गाकर, प्रकट स्व  गुण कीजिए|| 
सतत  परिश्रम, परोपकार कर, कार्य  स्वयं का भी साधें
निन्दित  कटु वाणी  दुर्जन  की, क्षमा रज्जू से ही बांधें|| 
ऐंसे  सतो  गुणी  पुरुषों  का, करे कौन नहीं है वन्दन
आश्चर्य युक्त है चर्या उनकी, जैंसे  होता है ,चन्दन||(70)
झुक  जाते  हैं  वृक्ष सभी, जब  लद जाते हैं फल से
मेघ  लटक जाते  हैंजब वे  भर जाते हैं जल से|| 
वैसे  ही  सत्पुरुष  नम्र हों, जब पाते समृद्धि
क्योंकि  परोपकारी  में यह  ही, है स्वभाव की  सिद्धि||(71)
शोभित  शास्त्र  श्रवण  से  होते, नहीं  कुण्डल से कान
कंकण नहीं  करों  की शोभाकरशोभितकरदान|| 
करुणा  परायण  पुरुष  ना  सोहेंकेवल  वे  चन्दन  से
वरन  है  उनकी  शोभा  होती, पर हित के  चिन्तन  से||(72)
श्रेष्ठ  मित्र  के लक्षण  सुनिए, सुनकर आत्म परीक्षण  करिए|| 
मित्रों  के  जो  पाप कर्म  हों, उनका सदा निवारण  करिए
हितकर  कार्यों  में  लगवाएं, गुप्त बात को धारण करिए|| 
प्रकट  गुणों  को उसके  करिए, त्याग ना संकट कारण  करिए
सदा  सहायक मित्र के  रहिए , हर प्रकार से पारण करिए|| 
यह लक्षण  सब  श्रेष्ठ  मित्र  के,  संत शब्द उच्चारण करिए
श्रेष्ठ मित्र के लक्षण सुनिए, सुनकर आत्म  परीक्षण करिए||(73)
सूर्य  खिला देता कमलों को, अनुनय विनय की बात नहीं |
शशि भी करे कुमुदनी विकसित, बिन इसके कोई रात नहीं ||
(शशि= चन्द्रमा, कुमुदनी = रात में खिलने वाला कमल|)
मेघ  विनय  के  बिना  ही बरसें, अहंकार मन लात नहीं |
परोपकार  रत  सदा  सत पुरुष, विनय से दें यह भात नहीं ||(74)
सज्जन, सामान्य और नीच हैं, तीन, पुरुष  के नाम
और जैसा इनका  नाम  है, वैसा इनका  काम||
सज्जन कार्य  स्वयं  का  छोड़ें, पर  हित  की चिंता में  दौड़ें|| 
जिन्हें  सामान्य पुरुष हम कहते, अपना  कार्य  तो  करते  रहते|| 
साथ  साथ  ही  परहित  करते, इसी  तरह वे जग में चलते|| 
किन्तु  नीच  कुछ  राक्षस  होते, ख़ुश तब होते, जब सब रोते|| 
वे  स्वार्थ  सिद्धि  में तत्पर रहते, और के कार्य मिटाकर  रहते|| 
कार्य पराये मिटायें अकारण, ऐंसे नीच का क्या उच्चारण||(75)
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मित्रता दूध  पानी  जैसी,
होते  सज्जन  मित्र  हैं  कैसे, एक  उदाहरण  सुनिए  जैसे|
जल  ने  दूध  के संग  मिलकर  के, मैत्री  दृढ़  की, गुण ले कर के|
दूध  ने जल  को  किया  समान, किया  मित्र  का  यों  सम्मान,
जल  ने  देखा  दूध  जलता  है, मित्र  बचाने  जल  जलता  है,
स्वयं  अग्नि  में  डाला  होम, जय जयकार  हुई  सब  व्योम,
व्याकुल हुआ  दूध  तब  भारी, चला  दाह को  कर  तैय्यारी,
तभी  मित्र  जल  ने  बाहर  से, शीतल  छींटों  को  दे  कर  के,
शीघ्र  दूध  को  कर  दिया  स्थिर, और  दूध  भी  शांत  हुआ  फिर|
क्यों कि दूध  ने पाया  जल  मित्र, ऐंसा  उदाहरण  ना अन्यत्र||â(76)
सज्जन सागर तुल्य हैंजो हैं, बहुत महान|
बड़ी सहन सामर्थ्य हैबहुत बड़ा गुण गान||  .
सज्जन सागर तुल्य हैं, जो है, बहुत महान
बड़ी सहन  सामर्थ्य  है, बहुत  बड़ा  गुणगान|| 
एक ओर  सिंधु  में  सोते, स्वयं विष्णु  भगवान
और  दूसरी  ओर  सो रहे, दैत्य  बड़े  बलवान|| 
एक  ओर  गिरि गण सोते हैं, ख़ुद  की  बचाने  जान
प्रलय  कालसमवर्ताग्नि ले, बड़वानल भी  सोया  आन|| 
कितना  भार  सहे यह  सिंधु, इसको  आती  नहीं  थकान
सज्जन  पुरुष बस इसी  तरह, सह कर  भार  करें  कल्याण|| (77)
{नोट:- इस प्रभावी श्लोक में कई पौराणिक  कथाओं  के  उदाहरण  दिए  गये  हैं
 -डॉ. ओ.पी. व्यास}
त्याग  करो  तृष्णा  का  सारी, और  क्षमा अपनाओ  आप
अहंकार  को  छोड़ो  सारा, मन से सभी हटाओ पाप|| 
बोलो  सत्य  वचन  वाणी  से, साधु  पुरुष  का  ध्यान  धरो
विद्वानों  की  सेवा  करिए, पूज्य  पुरुष  सन्मान  करो|| 
निज  शत्रु  को  भी  प्रसन्न  कर, दैवीय  गुण  सब  प्रकट  करो
सत्पुरुषों  के  हैं यह  लक्षण, बुरा  को  अच्छा  पलट  करो|| (78)
पुण्य  रूप अमृत से  पूरित, जिन मन, वचन, शरीर
परोपकार से  त्रिभुवन जीता, ऐंसे  हैं जो वीर|| 
और  प्राप्त  आनन्द  करें जो, पर  का  कर  गुण गान
गुण  परमाणु  जैसा  सूक्ष्म  हो,  वे कहते  गिरि  समान|| 
कितने  हैं , संसार में, ऐंसे सज्जन व्यक्ति
भरी  हुई  अमृत समान हो, जिनमें  ऐंसी  शक्ति||(79)
स्वर्ण सुमेरु  और  रजत  केहिम गिरि  हैं  बेकार
जिनके  आश्रित  वृक्ष, पेड़ हैंवही, नीम, सेवार|| 
धन्य  धन्य मलयाचल तुम को, चन्दन  बन  गये  वृक्ष हजार
नीमकुटज, कंकोल से कड़वे, बन चन्दन पाया उद्धार|| (80)
धैर्य प्रशंसा
कार्य  होय  आरम्भ  तो, मध्य ना छोड़ें धीर
बिन  अभीष्ट  की  प्राप्ति  के, होते  नहीं  अधीर|| 
जैसे  मथा समुद्र  जब, निकले  रत्न  महान
नहीं  हुए  संतुष्ट  देव गण, जारी  रहा मथान|| 
और भयंकर विष  जब  निकला, भय  का  नहीं  निशान
जब  तक  मंथन  पूर्ण  हुआ  नाआई  नहीं  थकान||(81)
पुरुष  मनस्वी  कार्यार्थीसमझें  दुःख  सुख  एक
चाहे  दुःख  हो, चाहे  सुख हो, भूलें  राह ना  नेक||
कभी  भूमि परकभी  शैया  पर, कर  लेते विश्राम
 शाक, पात या  बढ़िया  भोजन दे, भोजन  में काम|| 
कभी पहिन लें,  गुदड़ी, कथरी, कभी,दिव्य  परिधान
सुख में, दुःख  में, भेद, करें ना, ऐंसे पुरुष  महान||(82)
भूषण है ऐश्वर्य का, सज्जनता श्रीमान|
संयम वाक शोर्य का भूषण, शान्ति का भूषण ज्ञान||
विनय शास्त्र की शोभा होती, धन, सुपात्र को दान|
तप की शोभा है अक्रोध में, प्रभुता क्षमा को जान||
धर्म की शोभा रहो निष्कपट, रखो सभी का मान|
सदाचार सब गुण का भूषण, बहुत बड़ा गुण गान|| (83)
नीति के निपुण करें निंदा, चाहे कर दें  अनुशंषा|| 
लक्ष्मी रहे, चाहे जाए, मृत्यु अभी, कभी  आए|| 
न्याय के पथ को ना त्यागें, नहीं  कर्तव्यों से भागें|| 
धीर  वे  वीर जो डट जाएँ,  मुसीबत में ना घबराएं||(84)
वृद्धि और क्षय का कारण, है मनुष्य का भाग्य|
कभी आय  दुर्भाग्य तो, कभी आय सद भाग्य||
जैसे सर्प पिटारी में है ,त्याग के जीवन आशा|
शिथिल क्षुधा से इन्द्रिय सारी, मन में घोर निराशा ||
तभी रात्रि में एक चूहे ने, किया पिटारी छेद |
भूखे सर्प के मुख में आया, नहीं बहाया  स्वेद ||
तब भक्षण किया सर्प ने चूहा, चल दिया हुआ प्रसन्न|
देखो कैंसे वृद्धि और क्षय, भाग्य से पाते जन ||(85)                
सज्जन रहें विपत्ति में, काल  बहुत  ही अल्प|
कराघात से गेंद जो नीचे, उछले    कर   संकल्प ||(86)
महा रिपु आलस का, मानव तन से रहता योग |
मगर मिटें दुःख तत्क्षण तब, जब मित्र मिले उद्योग||(87)
जैंसे काटा हुआ वृक्ष भी, बढ़ता फिर है कट कर |
क्षीण हुआ चन्द्रमा बढ़ता, बार बार  है घट कर ||
ऐसा कर विचार , हें सत्पुरुष, मत ला मन में ख्याल
आज नहीं कल कट जाएंगे, तेरे संकट काल ||(88)
देव प्रशंषा
मन्त्र अधिष्ठाता  बृहस्पति, करते हों जिनका   नेतृत्व|
और वज्र आयुध है जिनका, सैनिक देव , स्वर्ग का दुर्ग||
वाहन है जिनका ऐरावत, सब ऐश्वर्य बल से सम्पन्न|
फिर भी हार, भगा, शत्रु से, जैसे कोई होय विपन्न||
इसीलिए यह बात श्रेष्ठ है, दैव   शरण के   होता   योग्य|
काम ना आये कोई पौरुष है धिक्कार, जो हुआ  अयोग्य||(89)
कर्म के ही बंधन से करता, हर मनुष्य सुख दुःख का भोग|
जैंसा  जिसका कर्म होय है, वैंसा बने बुद्धि का योग||
लेकिन फिर भी बुद्धिमान का, होता है यह ही कर्तव्य|
काम करें सब, सोच  समझ कर, फिर जो भी होना हो भवितव्य||(90)
भाग्य हीन जहाँ भी जाए, वहीं विपत्ति साथ ले जाए |
जैंसे गंजा व्यक्ति ,धूप से, बचने हेतु ताल तरु आए ||
एक बड़ा फल गिरे वृक्ष से, खल्वाटी का सिर फटजाए |
दैव बड़ा है, भाग्य बड़ा है, यह ही बात समझ में आए ||91
प्राणी हाथी जैसा पकड़ा, उसको बंधन में कर डाला |
काला सर्प, भयंकर, विषधर, पकड़ टोकरी में बैठाला ||
सूर्य चन्द्र से तेजस्वी ग्रह, उनको खाता राहू काला |
विद्वानों को देखा निर्धन, पल में खुला अकल का ताला ||
बुद्धि स्वस्थ हो गई हमारी, हट गया, पड़ा,मकड का जाला |
भाग्य बड़ा है दैव बड़ा है, विधि विधि जपूँ लिए कर माला || [ 92 ]
ब्रह्मा जी है आपकी कैसी? पण्डित बुद्धि |
             करते नहीं हो क्यों कर? उसकी श्रीमन शुद्धि ||
पुरुष रत्न भू पर रचे, भू पर, भूषण रूप|
             गुणाकार, सुंदर, बली एक से एक अनूप ||
लेकिन क्षण भंगुर किए, वाह ब्रह्म भगवान|
               क्या? ब्रह्मा अल्पज्ञ हो, बात लीजिए मान| 93
   विधिना ने है, लिख दिया,  जैंसा जो भी ललाट |
फिर किस ? में सामर्थ्य है,  उसको सके जो काट ||
उगें ना पत्ते यदि करील में, तो दोषी कहाँ ? वसंत |
सूर्य कहाँ ?  है दोषी,  देखें ना उल्लू श्रीमंत ||
मेघ कहाँ ? है दोषी, वर्षा जल ना पाए चातक |
दोषी कोई नहीं है, विधि का,  जारी सारा नाटक ||94
नमस्कार हें कर्म तुम्हे हीबारम्बार प्रणाम है |
कर्म के ऊपर वश नहीं चलता, विधि यों ही बदनाम है ||
जिन देवों की भक्ति करें हमवे सब विधि आधीन हैं |
कर्म से ही फल विधि हमको देंवह भी नहीं स्वाधीन हैं |
फल मिलता जब कर्म के कारणक्यों ? देवों , विधि को ध्यायें |
क्योंकि? कर्म करें हम जैंसेवैसे ही हम फल पायें ||
इसलिए कर्म करें हम अच्छेकर्म से राखें काम हैं |
नमस्कार हें कर्म तुम्हे हीबारम्बार प्रणाम है ||[ 95]
नमस्कार हें कर्म तुम्हें ही, तुमको बारम्बार है |

कर्म ने ब्रम्हा की नियुक्ति की, जैंसे कोई कुम्हार है|| 
बड़ा भाण्ड ब्रह्मांड बनायाब्रम्हा को उसमें बैठाया||
ब्रम्हा उसमें बैठे बैठेस्रष्टि करें तैयार हैं|
नमस्कार हें कर्म तुम्हें हीतुमको बारम्बार है ||[ 1 ]
भगवन विष्णु स्वयं संकट मेंबार बार फंसते झंझट में||
आना पड़ता है धरती पर, लेते दश अवतार हैं |
नमस्कार हें कर्म तुम्हें हीतुमको बारम्बार है ||[ 2 ]
महादेव शिव खप्पर ले करभिक्षा हेतु हो गये तत्पर ||
जिनके पास हैं श्री गंगा जीगले नाग के हार हैं |
नमस्कार हें कर्म तुम्हें हीतुमको बारम्बार है ||[ 3 ]

सूर्य सरीखे अति तेजस्वीपाई परिचारक की पदवी ||
भ्रमण गगन में करना पड़ताउनको बारम्बार है |
नमस्कार हें कर्म तुम्हें हीतुमको बारम्बार है||[ 4 ]
ब्रम्हा, विष्णु, शिव, सूर्य सरीखेकर्मानुसार बर्तना सीखे ||
सभी करें अपने कार्यों कोसब अपने कर्मानुसार हैं |
नमस्कार हें कर्म तुम्हें हीतुमको बारम्बार है ||[ 96 ]
आकृति से फल होय नहीं, ना कुल, शील से होय|
विद्या, भाव, स्वभाव और सेवा, वृथा, व्यर्थ सब कोय||
पूर्व जन्म कृत तप से सिंचित, आते काम हैं कर्म|
वृक्ष समान कर्म फल देते, समझो यह है मर्म|| [ 97 ]
वन में, रण में,शत्रु मध्य में, जल में और अग्नि में तप्त |
महा सिंधु में ,महान गिरि पर, असावधान हों, होंय प्रसुप्त||
संकट काल कहीं हो कैंसा, रक्षा करें हमारे कर्म|
पूर्व जन्म में कर्म किये शुभ, विद्वद जन यह समझें मर्म|| [ 98 ]
हें साधो सत्कर्म करो तुमसत्क्रिया भगवती ही ध्याओ |
व्यर्थ करो मत श्रम अन्यों में, सत्कर्मों   में  ही  मन लाओ ||
सत्कर्म से सज्जन, बनें, दुष्ट, मूर्ख, बनें, विद्वान् |
शत्रु, मित्र, सत्कर्म से होते, हों परोक्ष, प्रत्यक्ष, समान ||
विष भी सत्कर्मों के कारण, हों  जाता है अमृत  वान |
इसीलिए सत्कर्म ही पूजो, यही देव, भगवती, महान || [ 99 ]
अच्छा बुरा कर्म जो भी हो, प्रथम विचार करो विद्वान् |
भली भांति परिक्षण कर लो, गुण दोषों को लीजिए जान ||
बिना विचारे जो भी करते, जल्द बाजी में जो कर्म |
मृत्यु पर्यन्त वे चुभें वाण से, बिंध जाता है उर का मर्म || [100 ]
हें मन्द भाग्य, यह कर्म भूमि है, तुमने  जहां है जन्म लिया|
क्यों नहीं सत्कर्मों को करते?, क्यों नहीं करो, तपश्चर्या?
मूल्य वान ले स्वर्ण पात्र को, मणि, वैदूर्य से कर सज्जित|
चन्दन काष्ठ को जला जला, तिल सेंक करो हो तुम संचित||
स्वर्ण का हल निर्माण करा, जोत रहे भूमि किंचित|
मेंढ़ कपूर को काट बनाते, मूर्ख शिरोमणि तुम समुचित||
हाय वृथा ही जन्म लियो, ना कर्म कियो, ना हरि नाम लियो||
धिक्कार तुम्हें, हें भार स्वरूप, इतने दिन धरती पे, काहे जियो|| [ 101 ]
होनी ही होती है हरदम, अनहोनी कभी नहीं होती|
उठ भाग्य, भाग्य कहने वाले, क्यों सूरत ले बैठा रोती|| [ 1 ]
चाहे चढ़ जाओ सुमेरू पर, चाहे तो सिंधु में कूद पड़ो,
मत डरो कि जो भी कूदा है, लाता अमूल्य वह है मोती||
होनी ही होती है हरदम, अनहोनी कभी नहीं होती|
उठ भाग्य भाग्य कहने वाले,क्यों सूरत ले बैठा रोती||[ २ ]
उठ रण कर शत्रु से क्यों डरता, मरने से डरता वह मरता,
जब काल तेरा हो जाएगा, बुझना तो है एक दिन ज्योती||
होनी ही होती है हरदम, अनहोनी कभी नहीं होती|
उठ भाग्य भाग्य कहने वाले , क्यों सूरत ले बैठा रोती||[ 3 ]
वाणिज्य करो, कृषि कार्य करो, सम्पूर्ण कलाओं को सीखो,
क़िस्मत तो हरदम जाग्रत है, किसने है, कहा वह है सोती||
होनी ही होती है, हरदम अनहोनी कभी नहीं होती|
उठ भाग्य भाग्य कहने वाले क्यों सूरत ले बैठा रोती ||[ 4 ]
उठ जाग कि पंखों को फैलाउठ दूर गगन में तू उड़ जा,
जब कर्म की रेखा सोती है, तो धन की रेखा भी सोती|
होनी ही होती है हरदम, अनहोनी कभी नहीं होती|
उठ भग्य भाग्य कहने वाले, क्यों सूरत ले बैठा रोती||[102 ]
बहुत किए हों जिनने पूर्व जन्म में पुण्य|
नगर बनें उनको जंगल भी, पुरुष हैं ऐसे धन्य||
और वहीं जंगल में उनकी राजधानी हो जाती|
वहां नागरिक सज्जन होते, बढ़ती बहुत है ख्याति||
धन रत्नों से वसुधा भरती, विपुल सम्पदा आती|
प्रजा वहां की सुख से रहती, राजा का गुण गाती || [ 103 ]
लाभ कौन से जगत में आये आपके हाथ|
यदि तुमने काटा समय नहीं गुणवान के साथ||
और असुखकर दुःख तुम हो, क्या क्या ढोते आये?
मूर्ख प्राज्ञेतरों संग, जो, इतने दिवस बिताये||
रोज रोज ही व्यर्थ की हानि रहे उठाते|
मूल्य वान कर समय नष्ट, अब आंसू बैठ बहाते||
क्यों नहीं प्राप्त निपुणता करते, धर्म तत्व को सीख|
व्यर्थ ही याचक बन कर मांगो, पूर्ण विश्व से भीख||
उठो, बनो अब शूर जीत कर, अपनी इन्द्रिय काम|
कौन तुम्हारी प्रियतमा हो, पतिव्रता हो वाम||
असली धन क्या?  है इस जग में, बस केवल एक विद्या|
कहीं भटकना कभी पड़े ना, इससे बड़ा है सुख क्या? [ 104 ]
मालती के पुष्प जैसे, पुरुष होते हैं मनस्वी|
दो ही गतियाँ पांय वे, हों दो ही पदवी||
या तो श्रेष्ठ मुकुट वत होते, सर्व लोक में|
या तप से तन त्याग, जाएँ, वे स्वर्ग लोक में||105
अप्रिय बोलने में निर्धन जोप्रिय, वक्ताओं में, धनवान|
स्वयं की पत्नी से जो अति ख़ुश, पर निंदा पर दें ना ध्यान||
पर पीडन से दूर रहें जो, पुरुषों में शोभा वाले|
कभी कभी पड़ते हैं दिखाई, कान्ति और आभा वाले|| [ 106]
जिसके तन में प्रिय शील रहेवह अखिल विश्व को अति प्रिय है|
वह महा भयंकर अग्नि उसेशीतल जल जैसी निश्चय है||
उसे महासिंधु है क्षुद्र नदीऔर है सुमेरु सादा पत्थर|
हैं सिंह उसे मृग के जैसेपुष्पों की माला हैं विषधर|| 
औरों के लिए जो विष वर्षावह उसके लिए सुधामय है |
जिसके तन में प्रिय शील रहेवह अखिल विश्व को अति प्रिय है|| [107 ]
एक शूर पुरुष सूरज जैसा, पदाक्रान्त पृथ्वी करता|
वश कर लेता अखिल विश्व, जन जन में सुख को भरता||
जैसे की भास्कर किरणों से, जग में प्रकाश फैलाता है |
देकर कण कण को वह जीवन, सबके मन को हर्षाता है||[108 ]
पुरुष होंय गम्भीर, कभी भी, खोते नहीं हैं धीरज|
चाहे कष्ट कोई भी होवे, करते नहीं हैं अचरज||
जैंसे अग्नि की ज्वाला को, कर दें भले ही नीची|
मगर धीर पुरुष के जैंसी, जाती हर दम ऊंची|| [ 109 ]
जो भी होंय प्रतिज्ञा पालें, त्यागें ना सत धारी|
चाहे प्राण भले ही जाएँ, रहते हैं व्रत धारी||
क्योंकि प्रतिज्ञा उनको होती, माता वत ही पवित्र|
लज्जा पड़े उठाना उनको, ऐसा नहीं चरित्र||
तेजस्वी हैं पुरुष श्रेष्ठ वे, सदा रहें स्वाधीन|
मन ,कर्म और वचन से होते, कभी नहीं वे हीन||
ऐंसे धीर पुरुष का जग में, होता है गुण गान|
कहें "भर्तृहरि" सुनो "व्यास", तुम ऐंसे बनो महान|| [ 110 ]


विशेष ..
.धन्य भाग्य जो पूर्ण हुआ, नीति शतक है आज|
श्री "भर्तृहरि महाराज" ने, रखी "व्यास" की लाज||
"दि 26 / 8 / 1996 श्रावण का सोमवार"|
पूर्ण हुआ नीति शतक जो नीति का सार||
धन्यवाद तुम्हें "कल्पना" जो दिखला दी राह|
वाह तुम्हारी कल्पना, नीति शतक है वाह||
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दि.21/ 8/ 1996 श्रावण सोमवार
इति शुभम् 
भर्तृहरि नीति शतक
काव्यानुवाद डॉ.ओ.पी.व्यास
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भर्तृहरि नीति शतक काव्यानुवाद
इति  
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भर्तृहरि नीति शतक काव्यानुवाद
इति
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â खरगोश का सींग
â {नोट . इस  श्लोक  का  काव्यानुवाद को कब्बाली  रूप में भी एक कब्बाली गायक ने निम्न अनुसार प्रस्तुत किया था – “हमने  दोस्ती  की  है  साथ  हम  निभाएंगे, चाहे  कुछ  भी  हो जाए  छोड़कर  ना  जाएंगे---“ पूर्ण बोल बाद  में  प्रकाशित  करेंगे|  

भृतहरि नीति शतक का काव्यानुवाद