श्री राम चरित मानस- अरण्य काण्ड-प्रथम श्लोक-भावानुवाद
डॉ. ओपी. व्यास गुना[ म.प्र.]
मूलं धर्मतरोर्विवेकजल धे ............ श्री रामजी हैं धर्म तरु की मूल |
पूर्णेंदु * हैं, विवेक, जलधि के लिए, आनन्द कर सब जगत के अनुकूल||
[ [* पूर्णिमा के चन्द्र हैं] विवेक रुपी समुद्र के लिए] [,पूर्णिमा पर समुद्र में ज्वार आता है ]
श्री राम जी, वैराग्य रुपी कमल, विकसित करने वाले भास्कर॥
पाप रुपी घोर तंम को क्षण में, श्री राम जी ही हटाते हैं ख़ास कर॥
श्री राम जी पल में हटाते; दैहिक, दैविक, भौतिक, त्रिताप को ||
श्री राम जी त्रि ताप को, पल में नष्ट कर देते हैं समूल ॥
श्री राम जी हैं, धर्म तरु की मूल|| पवन वत, सबके लिए अनुकूल॥
ब्रह्मा जी के हैं वे वंशज, रची यह स्रष्टि; पर्वत, धूल ||
उनके ही बनाए सारे जीव, सूक्ष्म और स्थूल॥
उनके प्रिय भगवान शंकर, वन्दना उनकी ,क्षमा हों भूल |
[ २ ]
जल युक्त मेघों सा जिनका तन।
सुशोभित पहिनें वल्कल वसन।
सुशोभित पहिनें वल्कल वसन।
कमल समान सुंदर, मोहक जिनके नयन ||
मस्तक पर जटा जूट, किए धारण |
माता सीता साथ, संग भ्राता लक्ष्मण |
श्री राम जी चरणों में, मेरा नित्य है वन्दन ||
......................................... [128 ][ 24/5 /201६ मंगलवार ].................................................