कबाड़ा

तुम्हारी नज़र में जो है कबाड़ा|
हमारी नज़र में परिश्रम है गाढ़ा||
[ 1 ]
उसमें हमारे स्वेद [पसीने ] की ही महक है,
उसमें हमारे रक्त की ही चहक है||
उसमें हमारी यादें बसी हैं|
उसमें हमारे कई दिन हसीं
हैं||
जब तुम थीं एक लाड़ी|
और हम थे
एक लाड़ा||
तुम्हारी नज़र में जो है कबाड़ा|
हमारी नज़र में परिश्रम है
गाढा||
[ २ ]
आईं थीं तुम चन्द्र मुखी, शर्मातीं|
सभी के
दिलों को छूतीं और भातीं|
पर कब वक्त ने करबटें बदल लीं|
उन
सुनहरे दिनों ने आगे टहल की||
कब वक्त के सूरज के ताप ने,
तुम
सूरजमुखी हुईं, और
ज्वालामुखी हुईं||
शीतल जो चांदनी थी,
वो लावा मुखी हुई,
शान्त
जीवन हमारा कब बन गया एक अखाड़ा||
तुम्हारी नज़र में जो है कबाड़ा|
हमारी
नज़र में परिश्रम है गाढा||
[ ३ ]
हो गये दिन हवा जब पसीना इत्र था|
अब इत्र
भी लगे दुशमन जो कभी मित्र था||
अच्छे भले रिश्ते का क्यों दूध फाड़ा|
तुम्हारी
नज़र में जो है कबाड़ा|
हमारी नज़र में परिश्रम है गाढ़ा||
अरे लड़ने
को तो ओलम्पिक ही बहुत है|
कहते हैं खेल भावना जहां पर रहत है|
कहते हैं खेल से ही बनती
सेहत है||
करते सेहत के लिए कितनी मेहनत हैं|
तो फिर घरों को क्यों बनाओ
अखाड़ा|
तुम्हारी नज़र में जो है कबाड़ा|
हमारी नज़र में परिश्रम है गाढ़ा||
00000000000000000000000000000२९/६/२०१६ बुधवार000000000000000000000000000