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21 जन॰ 2014

भर्तृहरी नीति शतक , हम जिसके प्रेम में पागल थे ,उसे किसी और की चाह रही ।


भर्तृहरी  शतक [नीति ] 
[डॉ .ओ .पी .व्यास गुना म. प्र .]
हम जिसके प्रेम में पागल थे, उसे किसी और की चाह रही । 
[मैं जिसका चिंतन करता हूँ ,वह किसी और का चिंतन करता है ]
हम जिसके प्रेम में पागल थे, 
उसे किसी और की चाह रही । 
उसने भी चाहा ना उसे,
उसकी किसी और में राह रही॥ 
यह और और कितना अनंत,
जिसकी ना कहीं कोई थाह रही॥
देखी ऐसी चाहत विचित्र, 
खुल गए नेत्र एक झटके से। 
हम घोर नींद में डूबे थे,
अब जाग गए एक खटके से॥ 
धिक्कार उसे, उसके प्रिय को । 
धिक्कार नगर की उस तिय [नगर वधू] को॥ 
धिक्कार मुझे और मदन तुझे। 
दिया शिव ने तो ना सदन तुझे॥ 
पर तुझको क्या परवाह रही। 
हम जिसके प्रेम में पागल थे ,
उसे किसी और की चाह रही॥ 
उसने भी चाहा ना उसे, 
उसकी किसी और में राह रही॥ 
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भृतहरि नीति शतक का काव्यानुवाद