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भर्तृहरि शतक नीति शतक काव्यानुवाद
डॉ.ओ.पी.व्यास
21/ 7 /1996
श्लोक क्र . [ २ ]
हम जिसके प्रेम में पागल थे ,
उसे किसी और की चाह रही |
उसने भी चाहा ना उसे ,
जिसको उसने चाहा हरदम ,
यह और और कितना अनन्त ,
जिसकी ना कहीं कोई थाह रही ||
देखी ऐंसी चाहत विचित्र ,
खुल गये नेत्र एक झटके से |
हम घोर नींद में खोये थे ,
अब जाग गये एक खटके से ||
धिक्कार उसे , उसके प्रिय को ,
धिक्कार नगर की उस तिय को |
धिक्कार मुझे , और मदन तुम्हें |
दिया शिव ने तो ना सदन तुम्हें ||
बिगड़े घर द्वार किसी का भी ,
पर तुमको क्या परवाह रही |
हम जिसके प्रेम में पागल थे ,
उसकी किसी और में राह रही ||