[श्लोक क्र.[ 3 ] भर्तृहरि वैराग्य शतक [ काव्यानुवाद ..डॉ.ओ.पी.व्यास ]
हें तृष्णा अब तो तू पीछा छोड़ |
हे तृष्णा अब तो तू पीछा छोड़ |
जीवन को अब प्रभु भक्ति को मोड़ ||
देख तेरे चक्कर में पडकर, पृथ्वी मैंने खोदी |
पर्वत पर्वत डोल डोल कर,कई धातुएं शोधीं ||
गया सिंधु के पार रत्न को,बुद्धि हो गई औंधी |
मन्त्र सिद्धि मसान जगाए, और ज़िन्दगी खो दी ||
कानी कोंडी हाथ लगी ना, हुई खाज में कोढ़ |
डॉ.ओ.पी.व्यास 6/9/1996
श्लोक क्र . [ 3 ] भर्तृहरि वैराग्य शतक
मूल श्लोक ...
उत्खातं निधि शंकया क्षिति तलम ध्मातागिरेर्धात्वो ,
निस्तीर्णम सरिताम पति नृपतयो यत्नेनसंतोषीता |
मंत्राराधनत्प्ररेण मनसा नीताः श्मशाने निशा,
प्राप्त काणवराटकोअपि न मया तृष्ने अधुना मुंच माम ||[ 3 ]
अर्थ ..
गड़े हुए धन के लोभ में मैंने धरती को खोदा ,स्वर्ण पाने के लिए मैंने पहाड़ी धातुओं को गलाया , व्यापार हेतु मैं समुद्र पार गया , राजाओं की खिदमत की , मन्त्र सिद्धि के निमित्त रात- रात भर श्मशान में बैठा रहा , परन्तु मुझे एक कानी कोड़ी भी न मिली | अत एव हे तृष्णा अब तो मुझे छोड़ दे |