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21 सित॰ 2017

श्लोक क्र [ 3 ] भर्तृहरि वैराग्य शतक .. हें तृष्णा अब तो तू पीछा छोड़ | जीवन को अब प्रभु भक्ति को मोड़ ||...डॉ.ओ.पी.व्यास

[श्लोक क्र.[ 3 ]  भर्तृहरि वैराग्य  शतक [ काव्यानुवाद ..डॉ.ओ.पी.व्यास ]
           हें तृष्णा अब तो तू पीछा छोड़ |
हे तृष्णा अब तो तू पीछा  छोड़ |
जीवन को अब  प्रभु  भक्ति  को  मोड़ ||

देख तेरे चक्कर में पडकर, पृथ्वी  मैंने खोदी  |
पर्वत पर्वत डोल डोल कर,कई धातुएं  शोधीं ||
गया सिंधु के पार रत्न को,बुद्धि  हो  गई  औंधी |
मन्त्र सिद्धि मसान जगाए, और ज़िन्दगी  खो दी ||
कानी कोंडी हाथ लगी ना, हुई खाज  में कोढ़ |
हें तृष्णा अब तो तू पीछा छोड़| जीवन को अब प्रभु भक्ति को मोड़ ||
               डॉ.ओ.पी.व्यास 6/9/1996  
श्लोक क्र . [ 3 ] भर्तृहरि वैराग्य शतक 
मूल श्लोक ...
उत्खातं निधि शंकया क्षिति तलम ध्मातागिरेर्धात्वो ,
निस्तीर्णम सरिताम पति नृपतयो यत्नेनसंतोषीता |
मंत्राराधनत्प्ररेण मनसा नीताः श्मशाने निशा,
प्राप्त काणवराटकोअपि न मया तृष्ने अधुना  मुंच माम ||[  3 ]
अर्थ ..
गड़े हुए धन के लोभ में मैंने धरती को खोदा ,स्वर्ण  पाने  के लिए मैंने पहाड़ी धातुओं को गलाया , व्यापार हेतु मैं समुद्र पार गया , राजाओं की खिदमत की , मन्त्र सिद्धि के निमित्त रात- रात भर श्मशान  में बैठा रहा , परन्तु मुझे एक कानी कोड़ी भी न मिली | अत एव  हे  तृष्णा अब तो मुझे छोड़ दे |

भृतहरि नीति शतक का काव्यानुवाद