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7 अक्तू॰ 2016

[ 56 ] कण्टक सात शल्य से [ तीर से ] मेरे मन को चुभते हैं | रात दिवस वे मुझको आकुल व्याकुल करते हैं ||........................

[  56 ]....
कण्टक सात शल्य [ तीर ] से, मेरे मन को चुभते हैं |
रात दिवस वह मुझको, आकुल , व्याकुल करते हैं ||
दिन का धूमिल चन्द्र, गलित यौवन नारी का |
कमल विहीन सरोवरमूर्ख पुरुष प्यारी का ||
लोभी होवे स्वामी,बड़ी है ख़ामी ,सेवक भूखे मरते हैं |
कण्टक सात शल्य से,मेरे मन को चुभते हैं |
रात दिवस वे मुझको,आकुल , व्याकुल करते हैं ||

सबसे बड़ा है काँटा,सज्जन की होती है दुर्गति |
उससे बड़ा है राज भवन में, घुस गया कोई दुर्मति ||
यह सातों ही कांटे,निशि दिन , मन को मथते हैं |
कण्टक सात शल्य से,मेरे मन को चुभते हैं |
रात दिवस वे मुझको, आकुल व्याकुल करते हैं || 

काव्यानुवाद...डॉ.ओ.पी.व्यास  ................
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भृतहरि नीति शतक का काव्यानुवाद